बदलाव की ज़ुबान || The Language of Changing [लेखनगीरी by - Md.Shakib]


             क्या है बदलना, क्या बदलाव? हम कैसे जान पाते हैं कि बदलाव हो रहा है? क्या हम पहचान पाते हैं असली बदलाव की जुबान को, असली बदलाव की भाषा को?
         वक्त को ही ले लीजिए जो दुनिया की सभी चीजों को बदल डालता है चाहे वह मौसम का हो बदलना, चाहे वह दिन और रात का हो बदलना, चाहे वह कही गयी बात का हो बदलना, चाहे वह हालात का हो बदलना, चाहे वह जज्बात का हो बदलना, चाहे वह किसी वस्तु का हो बदलना, चाहे वह किसी इंसान का हो बदलना, चाहे वह किसी पहचान का हो बदलना, चाहे वह किसी ख्वाहिश का हो बदलना, चाहे वह किसी दर हो, चाहे वह किसी रूप का हो बदलना, चाहे वह किसी स्वरूप का हो बदलना दुनिया तमाम प्रकार की चीजों, पहलुओं किसी को भी बदलने की ताक़त सिर्फ और सिर्फ वक़्त मे होती है। वक्त एक ऐसा ख्वाब है जो सबका सपना और अपना है। जब वक्त किसी के दरवाजे पर जोरदार दस्तक देता है ना तो वह दरवाजा खुद खुल जाता है किसी को खोलने की जरूरत नहीं पड़ती, और रूबरू कराता है अपने आप से, एहसास दिलाता है अपने होने का। और वो एहसास ऐसा एहसास होता है कि उसके साथ बदलाव आ ही जाता है वो चाहे अच्छा बदलाव हो या बुरा।
                       अगर दुनिया में वक्त ना होता तो क्या होता? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं होगा लेकिन अगर ये दुनिया ना होती तो क्या वक्त होता? इसका भी जवाब नहीं होगा किसी के पास भी...
लेकिन अगर इस दुनिया में वक्त के साथ एक ऐसी चीज होती या कोई ऐसी ताकत होती जो वक्त को रोक लेती, जिससे वक्त ठहर जाता, जिससे सब कुछ दुनिया की सारी चीजें रूक जाती, दुनिया में हो रहे सारे बदलावों की भाषा खामोशी अख्तियार कर लेती तो क्या होता? क्या ऐसा भी कुछ हो सकता था? इसका भी जवाब नहीं पता होगा किसी को भी...!
                चलिए वक्त जो अपना हुक्म चलाकर बदलाव लाता है उस पर बात करते हैं...वक्त के साथ दुनिया में क्या-क्या बदलता है , वो जो बदलाव होता है वो हमारे लिए कैसा होता है या अगर वक्त के साथ होने वाले बदलाव के साथ हम छेड़छाड़ करते हैं तो हमारे लिए वो कैसा होता है अच्छा या बुरा?

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