Terrorism,Terrorist & Musalmaan || आतंकवाद,आतंकवादी और मुसलमान


आतंकवाद उस गतिविधियों तथा सोच को कहते हैं जिसका मकसद सिर्फ आम जनता अथवा व्यक्तियों की  जान लेना होता है।

                         जब कोई व्यक्ति अथवा संगठन अपने आर्थिक,राजनीति एवं विचारात्मक लक्ष्यों की प्रतिपूर्ति के लिए देश के नागरिकों की सुरक्षा को निशाना बनाए, तब वह आतंकवाद कहलाता है। आतंकवाद की सिर्फ यही नहीं और तमाम तरह की परिभाषाएं देखने को मिलती हैं जो अपने-अपने परिप्रेक्ष्य में सही होती हैं।
                                 आतंकवाद जब अपना आतंक मचाता है तो वह ये नहीं देखता कि सामने क्या है, अंधाधुंध चला आता है और सब कुछ तहस-नहस कर देता है। ये आतंकवाद किसी को नहीं बख्शता सामने किसी भी धर्म या मज़हब के बच्चे हों या सयान, बुढ्ढे हों या जवान, खुशी हो या ग़म, तुम हो या हम! सबको अपना शिकार बनाता हुआ ख़ुद को ख़ुदा मानते हुए जो कुछ भी हो पाता है करता चला आता है, जो कुछ भी हांथों में आता है उसकी मौत की भी रूह कांप जाती है, हर तरफ बर्बादी का आलम हो जाता है, लोगों के आंखों में कैद सपने गोलियों और बमों के साथ आंखों के सामने से ऐसे बिखरते हैं जैसे हवा में राख उड़ा दी जाय तो कभी इकट्ठा नहीं हो सकती। जो भी चपेट में आता है राख बन जाता है ऐसी राख जिसका कोई रंग नहीं, बिल्कुल तमस की तरह कुछ नज़र नहीं आता। हर तरफ तबाही, हर तरफ जिंदगी और मौत के बीच का नज़ारा और कई-कई सदियों के वक़्त का खसारा! लहूलुहान लाशों का ढेर जिसके सामने वक़्त भी रूक सा जाता है और वक़्त को भी कुछ नहीं भाता है सिवाय चलते रहने के, जैसे-चलता है आब बनके नवाब!

आतंकवादी

आतंक+वादी_शब्द से ही मालूम पड़ जाता है इस लफ्ज़ को अपना बनाने वाला कौन से वाद का वादी है। यह ऐसा वाद है जिसमें शायद दिल नाम की कोई चीज़ नहीं होती या फिर होती होगी तो वह सिर्फ खून/लहू के लिए ही धड़कता होगा। दो तरह से, पहला- उस शरीर के अंदर के लहू को पूरी शरीर में दौड़ाना और दूसरा- सामने वाले जिस जिस्म का शिकार करना है उसके लहू का लहूलुहान कर देना। दोनों तरह से लहू और लहू, खून और खून। मेरे हिसाब से आतंकवादी दो तरह के होते हैं....
1]-जहनी आतंकवादी
2]-बारूदी आतंकवादी
जहाँ तक वास्तविकता देखने को मिलती है यही लगता है कि ये जो बारूदी आतंकवादी होते हैं ये जहन के आतंकवादी रह चुके होते हैं। पहले इनका रास्ता जहनी तौर पर बदलता है और फिर वही जो जहन में साफ्टवेयर के रूप में भर जाता है उसी तरह तहस-नहस कर सकने वाले साजोसामान से सज जाते हैं। 
               जब कोई जहनी तौर पर आतंकवादी बनता है तो वो जिधर भी अपने कदम बढ़ाता है उसको यही लगता है कि जो कुछ दिख रहा है वो हमारे अनुसार नहीं है या जो कुछ हो रहा है वो हमारे अनुसार नहीं है, तो उसके मन में ये सवाल उठता है कि इन सारी चीजों को बदला कैसे जा सकता है और अपनी इच्छा पूरी करने के लिए अपना रूप बदल लेता है। अच्छा ये जो आतंकवादी होते हैं ये खुद को तैयार कैसे कर पाते हैं अपनी सोच के लिए बेगुनाहों की जान ख़त्म करने के लिए? इसका जवाब शायद आतंकवादियों के पास ही होगा।
एक आतंकवादी जब ख़ुद को और ख़ुद के दिमाग़ को बारूदों और बमों से लैस करके चलता है तो जो कुछ भी आंखों के सामने आता है तहस-नहस करता चला जाता है।

मुसलमान

"मुसल्लम ईमान हो जिसका उसे मुसलमान कहते हैं।"

आधुनिकता के इस दौर में टेक्नोलॉजी और कम्प्यूटर बाबा की इस दुनिया में अगर कहीं कोई आतंकवादी घटना होती है तो पहला संदेह वहाँ के मुसलमानों पर जाता है क्यों? आतंकवाद का तो कोई मजहब नहीं होता ना, आतंकवाद कोई धर्म नहीं सिखाता ना, आतंकवाद का मतलब मुसलमान तो नहीं होता ना??? आज जब हमारे सामने तमाम ऐसी और भी नजीरें हैं जिसमें आतंकवादी के रूप में अन्य धर्मों के भी युवक शामिल पाए गए हैं, इस्लाम के अलावा अन्य धर्मों को मानने वाले भी आतंकवादी गतिविधियों में सराबोर रंगे हाथों पकडे़ गए हैं तब फिर क्यों संदेह के आधार पर उठा लिया जाता है मुस्लिम नवजवानों को? क्यों इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ा जाता है?
                         अगर ये लफ्ज़ों का समूह गलत है तो फिर क्यों ऐसी घटनाएं हमारी आंखों के सामने आती हैं कि सदियों पहले हुई आतंकवादी घटनाओं में संदेह के आधार पर उठाए गए मुसलमानों को कोर्ट बाइज़्ज़त बेगुनाह बरी कर देती है, इसके चपेट में आए शख्सों का शौक, सपना, जिंदगी सब बेआबरू होकर रह जाती है, जिंदगी का कोई भी मतलब नहीं रह जाता है।
द वायर हिन्दी की हाल ही में आयी ख़बर के अनुसार _
1996 में राजस्थान में हुए समलेटी विस्फोट मामले के छह आरोपियों रईस बेग, जावेद ख़ान, लतीफ़ अहमद वाज़ा, मोहम्मद अली भट, मिर्ज़ा निसार हुसैन और अब्दुल गनी को 23 साल बाद अदालत द्वारा बरी कर दिया गया। इन लोगों को कभी ज़मानत नहीं दी गई,रईस बेग के अलावा अन्य लोग जम्मू कश्मीर के रहने वाले वाले थे। आतंक के आरोप से बरी होने के बाद कश्मीर के रहने वाले 48 वर्षीय मोहम्मद अली भट की मुलाकात अपने माता-पिता से नहीं, बल्कि उनकी कब्रों से हुई. अली ने अपने पिता शेर अली भट को 12 साल पहले देखा था।
राजस्थान हाईकोर्ट ने बीते 22 जुलाई को 23 साल पुराने समलेटी बम विस्फोट मामले के छह आरोपियों को बरी कर दिया. मोहम्मद अली भट इन्हीं आरोपियों में से एक हैं। वर्ष 1996 में राजस्थान के दौसा जिले के समलेटी क्षेत्र में हुए इस विस्फोट में 14 लोगों की मौत हो गई थी।
                   दौसा जिले की बांदीकुई की सत्र अदालत ने सभी आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं और सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने और विस्फोटक अधिनियम के तहत आरोपी बनाया था।
स्थानीय अदालत ने एक आरोपी फारूख अहमद खान को बरी कर दिया था।इनके खिलाफ राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय में अपील की थी, लेकिन उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने आरोपी खान के मामले में स्थानीय अदालत के फैसले को बरकरार रखा।
         सोचिए! एक बार कोर्ट के बरी कर देने के बाद राज्य सरकार ने फिर से अपील की उस शख़्स के ख़िलाफ़ क्यों? क्या इसलिए कि वो मुसलमान था? इसको क्या नाम दिया जाय साज़िश या घटना? और फिर राज्य की अपील के बाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने बाइज़्ज़त बरी किया।
22 मई 1996 को बीकानेर से आगरा जा रही राजस्थान रोडवेज की बस में हुए बम विस्फोट में 14 लोगों की मौत हो गई थी और 37 लोग घायल हो गए थे।
बांदीकुई की स्थानीय अदालत ने डॉ. हमीद को बमकांड का मुख्य आरोपी माना था और सलीम को हथियार सप्लाई करने का दोषी माना था। इस मामले के अलावा हमीद 26 जनवरी 1996 में जयपुर के सवाईमान सिंह स्टेडियम में भी बम लगाने का मुख्य आरोपी ठहराया गया था। बहरहाल अदालत का फैसला आने के बाद बीते 23 जुलाई को इन बेगुनाहों को जयपुर सेंट्रल जेल से रिहा कर दिया गया।
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, रिहा होने के बाद अपने घर श्रीनगर पहुंचे मोहम्मद अली भट ने पिता की कब्र के पास रोते हुए कहा, ‘मैं चाहता था कि रिहा होने के बाद मेरे पिता मुझे अपने गले लगाएं ताकि मैं उन्हें बता सकता कि मैं घर आ गया हूं.’
अली की मां की कब्र भी पिता के बगल में बनाई गई है,अली के 23 साल जेल में रहने के दौरान ही उनकी मां की भी मौत हो गई थी। अली जून 1996 के उन दिनों को याद करते हैं जब उन्हें नेपाल की राजधानी काठमांडू स्थित उनके किराये के कमरे से गिरफ्तार किया गया था,अली वहां कालीन बेचा करते थे। उन्होंने बताया, "ग्राहक बनकर सादे कपड़ों में मेरे पास पुलिसवाले आए थे,वे पहले मुझे काठमांडू के पुलिस हेडक्वार्टर ले गए और फिर दिल्ली ले आए, उस वक्त मैं 25 साल का था।"
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार श्रीनगर के फतेह कादल स्थित अपने घर में मामले से बरी किए गए लतीफ अहमद वाजा कहते हैं, "जेल में कुछ साल बिताने के बाद मैं अपनी पुरानी जिंदगी भूल चुका था, मैंने जेल को घर और वहां के दूसरे कैदियों को अपने परिवार के रूप में स्वीकार कर लिया था।"
रिपोर्ट के अनुसार-अली और लतीफ इस मामले में ट्रायल शुरू होने से पहले एक दूसरे को नहीं जानते थे,लतीफ को भी काठमांडू से गिरफ्तार किया गया था। बरी किए गए लोगों में सबसे छोटे मिर्जा निसार ने कहा, "मैं इस नई दुनिया के साथ अभी सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा हूं,मैं बिस्तर पर नहीं सो पा रहा हूं क्योंकि मैं फर्श पर सोने का आदी हो चुका हूं।"
39 वर्षीय निसार को जब गिरफ्तार किया गया तब वह सिर्फ 17 साल के थे,
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार- मामले के एक आरोपी रईस बेग आठ जून 1997 से जेल में बंद थे,जबकि बाकी के पांच आरोपियों को 17 जून 1996 से 27 जुलाई 1996 के बीच गिरफ्तार किया गया था, इस दौरान इन लोगों को दिल्ली और अहमदाबाद की जेलों में रखा गया और उन्हें कभी भी जमानत नहीं दी गई।
                                    अब क्या कोई है जो इनका वक्त लौटा सके? कौन लौटाएगा इनके 23-24 साल जो सिर्फ संदेह के आधार पर इनसे छीन लिया गया? कौन लौटाएगा इनकी वो खुशियाँ जो एक झटके में ग़म में बदल गयी? कौन देगा इनकी उन धड़कनों का हर्ज़ाना जो अपने वतन के नाम से धड़का करती थी और अब भी धड़कती हैं फिर भी ये सलाखों के पीछे रहेरहे। कौन देगा इनको वो सारा प्यार जो इनके परिवार से और इनसे जबरन छीन लिया गया? कौन बनेगा इनके सपनों का साथी जो सदियों पहले इनकी चमकती आंखों ने देखा था जो अब धूमिल पड़ गयी हैं। अब तो उन आंखों में वो चमक नही होगी ना? क्या सोच रहे होंगे ये लोग अपने देश के सिस्टम के बारे में और क्या सोचे होगे अपने वतन के बारे में जब इन बेगुनाहों के हांथों को हथकडिय़ों से मुलाक़ात करना पड़ा होगा?
                जवाब नहीं है किसी के पास इन सवालों का और ना ही होगा बल्कि इन सवालों पर भी सवाल दागे जा सकते हैं।
और इन सब सवालों के साथ एक दमदार सवाल और खड़ा होता है कि आखिर कौन था उन जानलेवा घटनाओं का जिम्मेदार, कौन था उन गुनाहों का असली गुनहगार? जो भी रहा होगा वो तो आज भी उसी सोच पर सवार होकर घूम रहा होगा ना? क्यों ऐसा हुआ ? किसको दोष दिया जाय? सिस्टम को या वक्त को?  अगर अपराधी का पता पुलिस नहीं लगा पा रही है तो दोष तो सिस्टम का ही हुआ ना, अब क्यों नहीं लगा पा रही या फिर क्यों लगाना नहीं चाह रही! इसका जवाब उसी के पास होगा। या फिर आसान लगता होगा इनवेस्टिगेशन करने से अच्छा जाकर उन लोगों को उठा लेना जिनकी तादाद इस मुल्क में कम है?
नतीजतन परिणाम यह निकलकर आता है कि सिस्टम, कानून और देश की व्यवस्था और जांच एजंसियों को और पारदर्शी तथा मजबूत बनाने की जरूरत है जिससे वो अपना काम बिना बेगुनाहों का इतना वक्त गंवाए कम समय में पूरा कर सकें और देश को सही दिशा में ले जाएं।
                               और एक जरूरी बात जिसको समझना बेहद जरुरी है कि - इस्लाम ही नहीं कोई भी मज़हब कोई भी धर्म बेगुनाहों का क़त्ल करने की इजाज़त नहीं देता। जो लोग इस्लाम के कंधे पर बंदूकें रखकर दुनिया के लंबरदार बने बैठे हैं असल में वो इस्लाम के सच्चे मानने वाले हैं ही नही, वो इस्लाम का चेहरा हो ही नहीं सकते। वो एक साजिश के साथ चल रहे हैं जिनका एक ही इरादा है मुसलमानों को बदनाम करना और नफरत फैलाना। मैं को मानने वाला, इस्लाम में विश्वास रखने वाला यह जानता हूँ कि इस्लाम कभी गुनाह करना करने और किसी बेगुनाह को सताने की इजाज़त तक नहीं देता। जो मज़हब वुज़ू करते वक़्त ना हक़ पानी बहाने की इजाज़त नहीं देता वो खून बहाने की इजाज़त भला कैसे दे सकता है! इस्लाम तो हमेशा प्यार, मोहोब्बत और भाईचारा सिखाता है। इस्लाम कहता है "जहाँ रहो फूल बनकर रहो,कांटे नही!" इस्लाम हमेशा सच था, सच है और सच रहेगा कोई भी बदनाम करने की कोशिश करे!
"दोस्त हो या हो दुश्मन जमाना तेरा,
कांटे बनकर नहीं फूल बनकर जियो!"
©SakibMazeed








                     

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