BhartenduHarishchandra || भारतेन्दु हरिश्चन्द्र : अधुनिक हिंदी साहित्य का रुख बदलने वाला साहित्यकार


 'भारतेंदु' की उपाधि से सम्मानित, हिंदी साहित्य और थियेटर के पितामह, देशहित चिंतक पत्रकार वाले व्यक्तित्व 'भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी' का जन्म 9 सितम्बर 1850 को उत्तर प्रदेश के बनारस में हुआ था. कम उम्र से ही उनकी पकड़ अनेकों विधाओं में थी. वो एक कवि, गद्यकार, नाटककार, व्यंगकार और पत्रकार थे.

भारतीय नवजागरण की मशाल थामने वाले इस महान योद्धा ने अपनी रचनाओं के ज़रिए ग़रीबी, गुलामी और शोषण जैसे मुद्दों के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद की और खुद को हिंदी साहित्य के मील का वो पत्थर बनाया जहाँ से आधुनिक काल का प्रारंभ माना जाता है. गुलामी और पुरानी सोच की ज़ंजीर में जकड़े समाज को उन्होंने आधुनिकता का रास्ता दिखाया और लोगों को भाषा के प्रति प्रेम की अलख जगाने का काम किया. उनका मानना था कि परलोक से जुड़ी व्यर्थ बातों पर लिखने से अच्छा है कि हम इस दुनिया की खूबियों और खामियों पर खुलकर लिखें.

पत्रकारिता में योगदान

भारतेंदु जी ने सिर्फ 18 वर्ष की उम्र में ही 'कविवचन सुधा' पत्रिका निकाली, जिसमें तत्कालीन विद्वानों की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं. उन्होंने 'बालबोधिनी पत्रिका', 'हरिश्चन्द्र पत्रिका' और 'कविवचन सुधा' जैसी पत्रिकाओं का संपादन किया. उनकी हरिश्चन्द्र पत्रिका सबसे अधिक लोकप्रिय हुई, इस पत्रिका में वो अंग्रेज़ी भाषा में भी लेख छापा करते थे. अपने ज़िन्दगी के अंतिम दिनों में भी उन्होंने एक पत्रिका निकाली थी जिसका नाम 'हरिश्चन्द्र चंद्रिका' था. उन्होंने अपनी पत्रिकाओं में साहित्य से अलग विषयों पर लिखा और आधुनिक भारत की समस्याओं पर खुलकर चिंतन-मनन किया और इसी के ज़रिए जनता में देशप्रेम विकसित करने में लगे रहे. अपनी पत्रकारिता के ज़रिए उन्होंने देशवासियों को समाज को बदलने का सपना दिया. उनकी टीका-टिप्पणियों से अधिकारियों तक घबराया करते थे. कविवचन सुधा के एक लेख पर नाराज़ होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेने तक से मना कर दिया था. भारतेंदु हरिश्चन्द्र पत्रकारिता के क्षेत्र के एक निर्भीक प्राणी थे और उन्होंने नये-नये पत्रों को प्रोत्साहन दिया. 'हिंदी प्रदीप', 'भारतजीवन' जैसे पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था.

भाषा को नया रूप देने का श्रेय

हिंदी भाषा के गद्य की नींव रखने वाले भारतेंदु जी हिंदी भाषा को एक नया रूप प्रदान करने में कामयाब रहे. वो भाषा के महत्व का ख़याल रखते हुए कहते हैं_____"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल!"

जिसका अर्थ है भाषा के विकास से ही विकास के सारे रास्ते खुलते हैं. पैनी नज़र और आज़ाद ख़याल रखने वाले भारतेंदु जी कई अन्य भाषाओं के भी जानकर थे. उन्होंने  संस्कृत, पंजाबी, मराठी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती भाषाएँ खुद से ही सीखीं. आलोचकों की नज़र में भारतेंदु जी का दूसरा सबसे बड़ा योगदान हिन्दी भाषा को नयी चाल में ढालने का माना जाता है. उन्होंने अपनी पत्रिका 'हरिश्चन्द्र मैगज़ीन' में 1873 से हिंदी की नयी भाषा को गढ़ना शुरू किया और खड़ी बोली का आवरण लेकिन उर्दू के प्रचलित शब्दों का प्रयोग किया. इसके अलावा उन्होंने कठिन और अबूझ शब्दों का प्रयोग करना बंद कर दिया. भाषा के इस रूप को हिंदुस्तानी शैली के नाम से जाना गया जिसे आगे चलकर मुंशी प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकारों ने और आकर्षक बनाया.भारतेंदु जी ने गद्य के साथ-साथ हिंदी की लगभग सभी विधाओं में अपने विचार प्रस्तुत किये. उन्होंने 'कुछ आपबीती, कुछ जगबीती' नामक उपन्यास लिखने पर काम शुरू किया लेकिन असमय निधन होने के कारण पूरा नहीं हो सका.

हिंदी नाटकों में योगदान

हिंदी साहित्य में नाटकों की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चन्द्र से मानी जाती है. सुसज्जित ढंग और खड़ी बोली में लिखकर हिंदी नाटकों को उन्होंने नयी ऊँचाइयाँ दीं. उनके दो नाटक बहुत ही ज़्यादा लोकप्रिय हुए उनमें 'अंधेर नगरी (1881)' और 'भारत दुर्दशा' का नाम आता है.

अंधेर नगरी___ एक ऐसा नाटक है जिसमें विवेकहीन और निरंकुश शासन व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हुए अपने कर्मों द्वारा नष्ट होते दिखाया गया है. अंधेर नगरी के एक भाग में भारतेंदु जी लिखते हैं... 

"चूरन खावै एडिटर जात

जिनके पेट पचै नहिं बात

चूरन साहेब लोग जो खात

सारा हिंद हजम कर जात

चूरन पुलिस वाले खाते

सब क़ानून हजम कर जाते"

शायद इन पंक्तियों से उनका ये कहना था कि आप सत्ता के उस चूरन को खाने से बचिए जो आपको हजम कर लेना चाहता है.

दूसरे बेहद लोकप्रिय नाटक भारत दुर्दशा में भारतेंदु जी ने प्रतीकों के माध्यम से भारत की तत्कालीन स्थिति का चित्रण किया इसके माध्यम से वो भारत की दुर्दशा को भारतवासियों से अंत करने के प्रयास करने का आह्वान करते हैं. वो ब्रिटिश हुक़ूमत और आपसी कलह को भारत दुर्दशा का मुख्य कारण मानते हैं. अंग्रेजों की खुराफाती करतूतों को सारा देश खामोशी से देख रहा था, खुद को लुटते हुए महसूस कर रहा था, मरते हुए देख रहा था बिल्कुल शांति से, तटस्थ भाव से, निराशक्ति से, निष्क्रियता से- ऐसे वक़्त में भारतेंदु हरिश्चन्द्र का 'भारत दुर्दशा' नाटक प्रकाशित हुआ. वो इस नाटक के में लिखते हैं

रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई |

हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई|| 

जिसका अर्थ है- हे भारतवासियों! आओ तुम सब मिलकर रोओ क्यों अब मुझसे ये भारत की दुर्दशा देखी नहीं जा रही है. 

ये पंक्तियाँ उन्होंने तब लिखी थी जब अंग्रेज़ी हुक़ूमत का दौर था लेकिन अगर हम देखें तो ये आज भी प्रासंगिक मालूम पड़ती हैं- शिक्षा के क्षेत्र में देख सकते हैं, भ्रष्टाचार पर नज़रें फेर सकते हैं, भारतीय पत्रकारिता की स्वतंत्रता का स्तर हमारी आंखों में है.

इसके अलावा भारतेंदु जी ने शिक्षा के क्षेत्र में ज़मीनी स्तर पर भी अपना योगदान दिया और शिक्षा के महत्व को जन-जन तक पहुँचाने के लिए उन्होंने ने चौखम्बा स्थित अपने मकान में  पांच छात्रों को लेकर पाठशाला की नींव रखी इसका नाम चौखम्बा स्कूल था जो बाद में हाईस्कूल हुआ और 4 अक्टूबर 1951 को कालेज भी बना और आज भारतेंदु डिग्री कालेज के नाम से जाना जाता है. इस कालेज से पढ़कर निकलने वालों की फेहरिस्त भी ग़ौर करने लायक है... 

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री 

नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री श्री बी. पी. कोइराला

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डाॅ. संपूर्णानंद 

बंगाल के भूतपूर्व राज्यपाल स्व. त्रिभुवन नारायण सिंह

और ब्रिगेडियर उस्मान 

जैसी शख्सियतें भारतेंदु जी के नाम पर चल रहे इस डिग्री कालेज से पढ़कर निकलीं. 34 साल 3 महीने की उम्र का सफ़र पूरा करते हुए 6 जनवरी 1885 को दुनिया को अलविदा कहने वाले भारतेंदु जी की ज़िंदगी बहुत लम्बी तो नहीं रही लेकिन वो इतनी बड़ी ज़िन्दगी जी कर गए, हिंदी साहित्य को जीने की ऐसी कई सदियाँ देकर गए कि हिंदी साहित्य और विचार की बुलंदी के सारे रास्ते उनसे होकर ही गुज़रते हैं.

©Sakib


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