फैसला बिहार का

 


कोरोना काल के सफ़र को तय करते हुए बिहार का चुनाव देश का पहला चुनाव था, बिहार विधानसभा की 243 सीटों वाले इस चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने बड़े ही उत्सुकता और जोश के साथ अपना सिक्का आज़माया लेकिन जैसा कि होता ही है, आख़िर बाज़ीगर वही बनता है जो खेल को अपने काबू में करने की ताक़त रखता है. और आख़िरकार नतीजे NDA की सरकार बनाते हुए दिखे और तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके नितीश कुमार एक बार फिर बिहार की गद्दी पर बैठने की ओर अपना रुख कर चुके हैं. ये चुनाव तो एक राज्य बिहार में ही था लेकिन इसका असर महज एक राज्य के चुनाव जैसा नहीं होता है बल्कि इससे पूरे देश की राजनीति में उथल-पुथल होती है. नतीजतन साबित ये हुआ कि मुस्लिम, यादव, लेफ्ट और युवाओं की गुत्थम-गुत्थी बनाकर मैदान में उतरने वाले महागठबंधन को हार का मुंह देखना पड़ा और एनडीए अपनी राजनीतिक दांवपेंच से खुद को सिद्ध करने में कामयाब रही.

मीडिया कवरेज
              अगर मीडिया रिपोर्टिंग पर बात की जाय तो हमें बिहार के प्रांतीय मीडिया से शुरुआत करनी होगी क्योंकि इस चुनाव में पटना की मीडिया भी अपना असर छोड़ती दिखाई पड़ती है. चुनाव से पहले की मीडिया कवरेज को अगर देखा जाय तो राष्ट्रीय मीडिया और स्थानीय मीडिया में प्रतिद्वंद्विता देखने को मिली, पटना की मीडिया में जो रिपोर्ट छापी जा रही थी वो वास्तविकता से अलग ट्रैक पर दिख रही थी और कुछ हद तक सत्ताधारी गठबंधन की ओर झुकाव देखा जा सकता था और दिल्ली से गये बड़े नेताओं की बातें प्रमुखता से आ रहीं थी और विपक्ष की बातें बहुत ही हाशिये पर आती थी, फ्रंट पेज पर विपक्ष की कहानी बहुत ही कम देखने को मिलती थी लेकिन जब बिहार सूबे में दिल्ली की मीडिया का प्रवेश हुआ तो तस्वीर कुछ और निकलकर सामने आयी जिसमें महागठबंधन की लहर की बात सामने आती दिखी. दिल्ली की मीडिया ने ज़मीन पर उतर कर रिपोर्टिंग की और तेजस्वी यादव को लेकर दिल्ली मीडिया ने चर्चा शुरू की तब स्थानीय मीडिया में भी महागठबंधन के मुद्दों और बातों को भी प्रमुखता से प्रसारित करना, छापना शुरू किया.और फिर तेजस्वी यादव को लेकर कवरेज और भी बढ़ता गया.
साथ ही अंग्रेज़ी अख़बारों और चैनलों पर Anti-incumbency (सत्ता विरोधी लहर) को लेकर चर्चा गर्म होते दिखी और ये जताया जाने लगा कि कहीं न कहीं बिहार में सत्ता विरोधी हवा का चलना शुरू हो चुका है वो चाहे तालाबंदी और विस्थापन की वजह से हो या फिर कोई और वजहें हों. लेकिन अगर चुनाव परिणाम के हिसाब से देखा जाय तो इस बात पर सवाल उठता दिखाई देता है और इसके अनुसार जानकारों का ये मानना है कि ये जो Anti-incumbency का तथ्य था ये असल में JDU और नितीश कुमार के लिए था, मोदी सरकार या BJP के लिए लोगों में सकारात्मकता देखने को मिली और लोगों में नितीश को लेकर गुस्सा था ना कि केंद्र की सत्ता को लेकर. Media Reports के अनुसार बिहार के लोगों का ये मानना है कि केंद्र से विभिन्न प्रकार की योजनाओं के लिए जो आर्थिक पैकेज आता है वो ज़मीन तक आते-आते अपना अस्तित्व खो देता है. और शायद लोगों के इसी गुस्से की वजह से ही कई स्तरों पर देखा जाय तो जैसे- Posters, Banners और प्रचारों में कहीं-कहीं BJP ने खुद को JDU से दूर रखा.कई-कई जगहों पर तो ये देखने को मिला कि भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता JDU के समर्थन में उतरे ही नहीं. अगर गौर करें तो यह भी देखने को मिलता है कि जहाँ-जहाँ भारतीय जनता पार्टी के नेता चुनाव मैदान में थे वहाँ तो सभी वर्गों का साथ मिला लेकिन जहाँ सिर्फ JDU के नेता थे वहाँ के तथाकथित Upper Cast का साथ कम ही दिखा. जब दिल्ली के पत्रकारों का जमावड़ा पटना आया तो Anti-incumbency की बात और नितीश के प्रति गुस्से की बात निकल कर बाहर आयी और उसके बाद महागठबंधन की लहर दिखनी शुरू हुई तथा इस लड़ाई को 'कांटों की टक्कर' बोलकर संबोधित किया जाने लगा. उसके पहले तक प्रांतीय मीडिया पूरी तरह से ज़मीन पर घूमकर जनता से बात करके वास्तविकता को उठा पाने में नाकाम दिख रहा था.

एक्जिट पोल इक्जैक्ट कैसे नहीं हुआ?
                  चुनावी जनसभाओं की गहमागहमी चल ही रही थी कि देश के सामने तमाम प्रकार के एक्जिट पोल पेश किए जाने लगे,स्थानीय और राष्ट्रीय सभी प्रकार की मीडिया ने अपनी-अपनी तरह से कयास लगाना शुरू कर दिया और लगभग सभी संस्थानों ने एक्जिट पोल के ज़रिए महागठबंधन के मुखिया तेजस्वी यादव को पिक्चर का असली हीरो  घोषित करने का काम शुरू कर दिया और राष्ट्रीय स्तर पर तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने पर बात होनी शुरू हो गयी,नतीजे आने के एक दिन पहले तेजस्वी यादव का जन्मदिन था और सुर्खियों में ये बात होती दिखी कि  इस खास मौके पर जनता की ओर से जन्मदिन का उपहार मुख्यमंत्री के  रूप में मिलने वाला है. लेकिन अभी बिहार के जनादेश की पिक्चर बाकी थी और चुनाव परिणाम के लिए वोटों की गिनती शुरू हुई. शुरुआती रुझान तो महागठबंधन के पक्ष में थे लेकिन जैसे-जैसे सूरज की किरणों में गर्मी का एहसास बढ़ता जा रहा था उसी तरह रुझानों में बदलाव भी दिखने लगा और होते-होते NDA को बढ़त मिलती दिखी और ये बढ़त ही बनी रही, कई मीडिया संस्थान इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि शायद शाम ढलने के साथ फिर से पहले जैसी तस्वीर देखने को मिले लेकिन ऐसा होता नहीं दिखा. नतीजतन एक्जिट पोल इक्जैक्ट नहीं हो सका और महागठबंधन 110 सीटों पर सिमट कर रह गया तथा एनडीए के खाते में 125 सीटों का आंकड़ा गया और साथ ही नितीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बनने पर विचार-विमर्श शुरू हो गया.
अब सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा कैसे हो सका कि उठने वाली लहरों का अस्तित्व ही खत्म दिखा और जितने भी एक्जिट पोल थे सब के सब फेल होते दिखे, आखिर कौन सी ऐसी रणनीति का स्तेमाल एनडीए ने किया?
                         Media reports और जानकारों की मानें तो बिहार के इस महासमर की कश्ती का रुख समंदर के बीच में पहुँचकर बदला. पहले तो बिहार में सत्ता के बदलाव की लहर बिल्कुल साफ़ तौर पर दिख रही थी. लेकिन दूसरे चरण में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रवेश हुआ तो मोदी फैक्टर को लेकर चर्चा शुरू हो गयी और जिस तरह से नरेंद्र मोदी जंगलराज और युवराज जैसे शब्दों से चुनावी माहौल में उथल-पुथल मचाने में कामयाब रहे वही NDA के लिए मोड़ का केंद्र साबित होता दिखा और वो हवा के रुख को बदलने में कामयाब दिखे और इसी सिलसिले में अब यह भी चर्चा जोरों पर है कि शौचालय, घरेलू गैस कनेक्शन जैसी योजनाओं के ज़रिए भाजपा ने महिलाओं को खुद से जोड़ने का जो अभियान शुरू किया था वह एक वोट बैंक साबित हुआ एवं उसका फ़ायदा बीजेपी को बिहार में मिला. और आख़िरकार एक अप्रत्याशित परिणाम से जनता की मुलाक़ात हुई. यह भी माना जा रहा है कि बीजेपी तथा नरेंद्र मोदी अब हिंदुत्व के अलावा गरीबों और पिछड़े तबकों के लोगों में भी वोट बैंक बना चुके हैं.
और अगर तेजस्वी यादव की बात करें तो उनकी भूमिका भी चुनाव को एक नई दिशा में ले जाने की रही है. जिस तरह से तेजस्वी ने मुखर होकर धार्मिक मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते हुए बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर बात की, काफी हद तक युवाओं तक भी पहुँचने में कामयाब दिखे तथा पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव के पुत्र होते हुए भी खुद को उत्तराधिकारी होने जैसी बातों एवं रुतबे से दूर रखा और पूरे चुनाव का केंद्र बनते हुए इस लड़ाई को कांटे की टक्कर का नाम देने में कामयाब दिखे वो गौर करने लायक है.
नतीजतन बिहार के मतदाताओं ने सत्ताधारियों की आंख से आंख मिलाते हुए, खुद के होने का सुबूत देते हुए ये सिद्ध कर दिया है कि जब तक कोई पार्टी या दल ज़मीन पर उतरकर बिहार के हालातों और स्थितियों पर बात नहीं करेगा, गर्मजोशी से काम नहीं करेगा और कागज़ के विकास की दशा को असली विकास की दिशा की ओर नहीं मोड़ेगा, तब तक वह दल बड़ी ताक़त का मालिक या बड़ी जीत का हीरो बनकर नहीं उभर सकता.
 
                         

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