अपनी क़लम के आज़ाद मालिक थे माधवराव सप्रे || Madhav Rao Sapre

“प्रजा कितनी भी दुर्लभ हो, वह नि:शस्त्र क्यों न हो, यदि वह दृढ़ निश्चय और ऐक्य भाव से कुछ करना चाहे तो सबकुछ साध्य हो सकता है। वह अन्यायी शासनकर्ताओं और अविचारी सत्ताधारियों को राह पर ला सकती है।” माधवराव सप्रे जी का ये कथन उनके दौर में जितना प्रासंगिक उतना ही आज भी प्रासंगिक है।


जब भी हिन्दी पत्रकारिता में बग़ावत और विरोध के स्वर की बात आती है तो माधव राव सप्रे का नाम शीर्ष के पत्रकारों में आता है। सप्रे जी का जन्म 19 जून 1871 में मध्य प्रदेश के दमोह जिले  के पथरिया गाँव में हुआ लेकिन वो सिर्फ प्रदेश तक ही सीमित नहीं रहे। उनके क़लम की आवाज़ पूरे देश की सलाहियत में गूँजी। उनको एक जागरुक पत्रकार के साथ हिन्दी नवजागरण के बुद्धिजीवी के रूप में भी याद किया जाता है।


ब्रितानी सरकार के दौर में उन्होंने हमेंशा अपनी ज़ुबाँ तेज़ और क़लम सीधी रखी। वो स्वदेशी आंदोलन के प्रबल समर्थक थे। जिस सत्ता के ख़ौफ से उस दौर के बड़े-बड़े अख़बार घुटने टेक दिए, उसी  हुक़ूमत के सामने उन्होंने ‘हिन्दी केसरी’ नामक साप्ताहिक पत्रिका में अंग्रेजों की दमन नीति का खुलकर विरोध किया और परिणाम ये हुआ कि उनकी गिरफ्तारी करवा ली गई। उसके बाद उनकी पुस्तिका ‘स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट’ पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसमें अंग्रेजों द्वारा भारत के शोषण और लूट का विस्तार से उल्लेख किया गया था। इस किताब में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि “जब तक इस देश में स्वराज्य स्थापित नहीं हो जाएगा तब तक  अन्य विषयों में सुधार करने की यत्न सफल नहीं हो पाएगा।”


तमाम तरह के सरकारी दमन उन पर होते रहे लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नही था, तब उन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से ‘छत्तीसगढ़-मित्र’ नामक मासिक पत्रिका निकाली। इसके अलावा वो सरस्वती, मर्यादा, प्रभा,विद्यार्थी, अभ्युदय, ज्ञानशक्ति, लिलता, विज्ञान, हितकारिणी जैसी तमाम पत्रिकाओं में अपने बग़ावत भरे अल्फ़ाज़ों से सराबोर लेख लिखते रहे। उनका मानना था कि स्वाधीनता आंदोलन, भारतीय समाज, हिन्दी भाषा तथा साहित्य की सेवा पत्रकारिता जैसे हथियार के ज़रिए ही की जा सकती है। अंग्रेजी सराकार के दौर में स्वाधीनता आंदोलन के लक्ष्य के रूप में  स्वराज्य हासिल करने की खुलेआम घोषणा करने वाले लोगों में माधवराव सप्रे का नाम आता है। प्रसिद्ध पत्रकार और कवि माखनलाल चतुर्वेदी के द्वारा निकाले गए अख़बार ‘कर्मवीर’ में भी सप्रे जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था।


जब उनकी क़लम साहित्य के लिए उठी तो ‘भारतेन्दु युग’ के लेखकों में अपना एक अलग स्थान बनाने वाले सप्रे जी ने साहित्यिक रचनाओं के ज़रिए समाज और देश की ज्वलंत समस्याओं पर खुलकर बात की। सामाजिक समस्याओं को अपनी क़लम का उद्देश्य बनाने के साथ-साथ उन्होंने राजनीति, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और विज्ञान से संबंधित विषयों पर कई निबंध लिखे, जो हिन्दी गद्य में महत्वूर्ण रूप से याद किए जाते हैं। मूलत: मराठी भाषी होने के बाद भी उनका नाम उन लेखकों में आता जिन्होंने हिन्दी को समाजविज्ञान के विषयों और मुद्दों पर चिंतन और लेखन की भाषा बनाने की कामयाब कोशिश की। उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘एक टोकरी मिट्टी’ को हिन्दी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। हिन्दी कहानी के विकास में सप्रे जी का जितना योगदान है उससे अधिक हिन्दी समालोचना के आरंभिक रूप के निर्माण में उनकी भूमिका है। उनकी समीक्षाओं के विषयों की विविधता को देखकर लगता है उनकी दृष्टि में समालोचना सिर्फ साहित्य ही सीमित नहीं है।


सप्रे जी के जीवन पर दो व्यक्तियों की गहरी छाप देखने को मिलती है। जानकारों के मुताबिक एक ओर उन्हें मराठी के प्रसिद्ध लेखक और विचारक विष्णु शास्त्री चिपलूणकर से जानदार भाषा में निर्भीक होकर अपने विचार व्यक्त करने की प्रेरणा मिली तथा दूसरी ओर समाजसुधारक बालगंगाधर तिलक  से उन्होंने उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक नज़रिया हासिल किया। उनकी पत्रकारिता तथा राजनीतिक सक्रियता पर तिलक का भरपूर असर देखने को मिलता है।


माधवराव सप्रे जी हमेशा भारतीय समाज के बारे में चिंतित रहते थे। एक ओर दलितों की पराधीनता उनको अंदर ही अंदर सताती रहती थी तो वहीं दूसरी ओर देश में स्त्रियों की दशा देखकर वो हमेशा परेशान रहते थे। उनका मानना था कि देश की उन्नति के लिए स्त्रियों और पुरुषों के बीच समानता होना आवश्यक है। उन्होंने ये बात स्पष्ट रूप से कही थी कि “जब समाज में स्त्री और पुरुष दोनो के अधिकार समान भाव के न होंगे तब तक समाज की उन्नति न होगी और स्त्री पुरुषों में स्वाभाविक प्रेम का बंधन न रहेगा।”


माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर १९२६ के कर्मवीर  में लिखा था − "पिछले पच्चीस वर्षों तक पं॰ माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम-घूम कर अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर, अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"


माधवराव सप्रे ने मौलिक लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदास के मूलतः मराठी में रचित 'दासबोध', लोकमान्य तिलक रचित 'गीतारहस्य' तथा चिन्तामणि विनायक वैद्य रचित 'महाभारत-मीमांसा' जैसे ग्रन्थ-रत्नों के अतिरिक्त दत्त भार्गव, श्री राम चरित्र, एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों, पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया।


विभिन्न क्षेत्रों में उनके सहयोग को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि सप्रे जी ने हिन्दी पत्रकारिता को बुलंदी पर ले जाने साथ-साथ हिन्दी भाषा को भी नई ऊँचाईयाँ दीं। 23 अप्रैल 1926 को उनकी ज़िंदगी का सफ़र तो पूरा हो गया लेकिन उनके अल्फ़ाज़ आज भी अपने ज़िन्दा होने का एहसास देते हैं। आज भी उनके द्वारा लिखे गए लेखों के ज़रिए, उनके अथाह सहयोग को याद किया जाता है। यह उनकी असरदार क़लम का प्रभाव है, और यही प्रभाव उनको अपनी क़लम का आज़ाद मालिक बनाता है।


©मोहम्मद साकिब

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