आधुनिक मुख्यधारा मीडिया के दो रूप || Two dimensions of Contemporary Mainstream Media


 

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है जहां  मीडिया को इस लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। मीडिया यानी समाचार पत्र-पत्रिकाएं और चैनल्स। लेकिन जब लोकतंत्र के स्तंभ समाचार के बजाय या समाचार के साथ पत्रकारिता के मूल्यों के साथ दुराचार और अवाम के चुनिंदा लोगों पर अत्याचार करने का साधन बनने लगे तो‌ विषय चिंताजनक हो जाता है। जब मीडिया किसी साधारण ख़बर को ग़दर में तब्दील कर दे और उस पर न्यायिक समीक्षा करने लगे तो देश में न्यायालयों की दीवारों को सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि हमारा कोई अस्तित्व है भी या नहीं। 



 मीडिया किसी समुदाय विशेष को निशाना बनाकर, उसको कटघरे में खड़ा कर दे और वहीं दूसरी ओर उसके पड़ोसी पर आंख उठा कर भी न देखे उसके बाद उस समुदाय विशेष को अल्पसंख्यक महसूस होना पड़े, जिससे संविधान के पन्ने ये सोचने पर मजबूर हो जाएं कि मुझ पर कैलीग्राफी किए इन लफ्जों का दायरा क्या है, तो सवाल और ज़वाब दोनों लाज़मी हो जाते हैं। लेकिन अब यह भी सवाल उठता है कि क्या सवाल करने वाले भी अभी बचे हैं? क्या सवाल करने वालों का अस्तित्व बचा है या सिर्फ मुख्यधारा की मीडिया के उन्हीं चुनिंदा चेहरों के सवालों को सुना और उनको तथाकथित ज़वाब दिया जाता है। सवाल कई हैं लेकिन ज़वाब शायद ही मिल पाएं। जो ज़वाब मिलते भी हैं उनको तथाकथित ज़वाब कहा जा सकता है। 

जब मुख्यधारा की मीडिया ऊपर लिखी गई विशेषताओं की संज्ञा बन जाय और उसका दो रूप दिखने लगे तो ज़रूरी हो जाता है बात करना पत्रकारिता के उन मूल्यों के बारे में जिनसे मिलकर पत्रकारिता शब्द अपने वजूद में आता है। 

मीडिया का ये रूप तब दिखता है जब आज से एक साल पहले देश की राजधानी दिल्ली में तबलीग़ी जमात केस सामने आता है। होता ये है कि कोरोना की वजह से अचानक तालाबंदी लगने से जमाती निज़ामुद्दीन मरकज में रुकने को मजबूर हो जाते हैं और उनमें से कुछ जमातियों की कोरोना रिपोर्ट पाज़िटिव आ जाती है। 

उसके बाद मुख्यधारा की मीडिया जैसे किसी पाठ्यक्रम द्वारा चल रही क्लास की तरह काम करने लगती है और देश में बढ़ते कोरोना मामलों का ठीकरा निज़ामुद्दीन के जमातियों पर फोड़ा जाने लगता है। पूरा-पूरा दिन, शाम और रात की टीवी बहसों में, लेखों में हर जगह जैसे एक मुहिम चलाई जाती है‌। कोरोना बम, कोरोना जिहादी, कोरोना सौदागर, कोरोना आतंकवाद जैसी हेडलाइन्स टीवी स्क्रीन पर फ्लैश होने लगती है। पूरे देश में नफ़रत का एक माहौल बनाया जाता है।

 परिणाम ये होता है कि सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होता दिखने लगता है। समुदायों में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत की आंधी आ जाती है। सब्जी बेचने वाले खास समुदाय के दुकानदार से लोग नफ़रत करने लगते हैं, गली-मुहल्लों से भगाने लगते हैं। लेकिन मुख्य धारा की  मीडिया अपना ये सिलेबस पूरा करके ही मानती है। एक वर्ग के खिलाफ सामाजिक वैमनस्य का पेड़ खड़ा करके ही मानती है, जिसका परिणाम इतना‌ बुरा होता है कि उसको शायद लिखकर नहीं बताया जा सकता। क्या यह उसी मीडिया का काम है जिसको लोकतंत्र का चौथा खंभा माना‌ गया है? 

संबंधित मामले से  सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने के बाद अदालत ने भी इस बात पर मुहर लगाई कि मुख्य धारा की मीडिया के द्वारा जो भी किया गया वो‌ उचित नहीं था । 
सुनवाई में उच्चतम न्यायालय ने कहा बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का ‘सबसे ज्यादा’ दुरुपयोग हुआ है.
इस टिप्पणी के साथ ही न्यायालय ने साल के शुरू के तबलीगी जमात के मामले में मीडिया की कवरेज को लेकर दायर हलफनामे को ‘जवाब देने से बचने वाला’ और ‘निर्लज्ज’ बताते हुए केंद्र सरकार को आड़े हाथ लिया था।  पीठ ने कहा था कि , ‘बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हाल के समय में सबसे ज्यादा दुरुपयोग हुआ है.’

ये था भारतीय मीडिया का एक रूप, और अगर दूसरा रूप देखें तो हम कोरोना के दूसरे लहर की उस वक्त की मीडिया रिपोर्ट्स पर नज़र दौड़ा सकते हैं जब हरिद्वार का कुंभ मेला अपने सबाब पर था और कोरोना के मामलों की शुरुआत लगभग हो चुकी थी। कई शहरों में तालाबंदी की बातें भी चल रही थी, गाइडलाइंस का पालन करवाया जा रहा था।  जिस तरह से पिछले वर्ष कोरोना काल में तबलीग़ी जमात के लोग निज़ामुद्दीन में एकत्रित हुए थे, उससे कहीं ज्यादा संख्या में इस साल के हरिद्वार कुंभ मेले में स्नान करने आए लोग एकत्रित हुए और कोरोना‌ संक्रमित होने की भी ख़बरें आईं, लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में कहीं कोई हल्ला नहीं दिखा। 

इस तरह से अगर देखा जाय तो मुख्यधारा की मीडिया का दो रूप दिखता है‌। एक थोड़ा ज़्यादा चमकदार है  और दूसरा कम।

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