दहेज का ग़ुलाम आज़ाद भारत



'दूल्हन ही दहेज है...' जिस तरह से ये कथन भारत के शहरों-गाँवों की दीवारों, वाहनों और सार्वजनिक स्थलों पर पढ़ने को मिल ही जाता है बिल्कुल उसी तरह जहेज प्रथा भी भारत के हर एक कोने की अनकही दास्तान है। यह एक ऐसी कुप्रथा है जो मज़हबों के बंधनों को तोड़ती-मरोड़ती हुई अपना विस्तार करती रही है। आज़ाद भारत के मौजूदा समाज का तो ये आलम है कि आप जितना ज़्यादा दहेज दोगे, आपको उतना ही रईस समझा जाएगा। ये ऐसी प्रथा है जो भारत के हर धर्म, हर समुदाय के लोगों को ग़ुलाम बनाए हुए है। दहेज के कारण महिलओं को हाशिए पर धकेल दिया जाता है, उनके साथ घरेलू हिंसा होती है और कई बार तो यह समस्या मौत का भी कारण बनती है। देश में औसतन हर एक घंटे में एक महिला दहेज संबंधी कारणों से मौत का शिकार होती है। 

दहेज जैसी कुप्रथा के कारण सबसे ज़्यादा परेशानी गरीब तबकों से संबंधित लोगों को होती है। ऐसे परिवारों को दहेज देने के लिए कभी-कभी भारी क़र्ज भी झेलना पड़ जाता है। जो परिवार जहेज दे पाने में कमज़ोर पड़ता है या फिर नहीं दे पाता उसको वही समाज हीन भावना से देखता है।

पिछले दिनों विश्व बैंक द्वारा जारी की गई रिपोर्ट चौंकाने वाली है। रिपोर्ट में ये दावा किया गया कि पिछले कुछ दशकों में, भारत के गाँवों में दहेज प्रथा काफ़ी हद तक स्थिर रही है, लेकिन यह प्रथा बदस्तूर जारी है। जारी किए गए आँकड़ों के मुताबिक 1960 से लेकर 2008 तक ग्रामीण भारत में हुई चालीस हज़ार शादियों का अध्ययन किया गया। यह शोध भारत के 17 राज्यों पर आधारित है, जहां हिन्दुस्तान की 96 फीसदी आबादी निवास करती है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सभी प्रमुख धर्मों में दहेज प्रथा प्रचलित है। गौर करने वाली बात यह है कि ईसाईयों और सिखों में दहेज में जबरदस्त बढ़ोतरी देखी गई है, इन समुदायों में हिन्दुओं मुसलमानों की तुलना में औसत दहेज में वृद्धि हुई है।

इसी तरह 1997 की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रत्येक वर्ष पाँच हजार महिलाएँ दहेज हत्या का शिकार होती हैं, कई मामलों में महिलाओं को जिंदा जलाने की घटना भी सामने आ चुकी है।

हिन्दुस्तान में दहेज को अनैतिक ही नहीं अवैध भी घोषित किया गया है। दहेज से संबंधित ऐसी घटनाएं आज के दौर में देखने को मिलती जब भारतीय समाज कई मज़हबी और सरकारी क़ानूनों का हिस्सा है।

इस्लाम धर्म में ‘दहेज देना-लेना हराम’ बताया गया है, लेकिन धर्म को मानने वाले अधिकांश लोग जहेज का शिकार हैं।

भारत के संविधान में कई ऐसे क़ानून उल्लिखित हैं जिसमें दहेज को अपराध माना गया है। 1961 में सबसे पहले ‘दहेज निरोधक कानून’ अस्तित्व में आया, जिसमें दहेज देना और लेना दोनों ही ग़ैरक़ानूनी घोषित किए गए।

‘दहेज निषेध अधिनियम-1961’ के अनुसार दहेज लेने-देने या इसके लेन-देन में सहयोग करने पर 5 वर्ष की कैद और 15,000 रुपए के जुर्माने का प्रावधान है।

दहेज के लिए उत्पीड़न करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए जो कि पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा सम्पत्ति अथवा कीमती वस्तुओं के लिए अवैधानिक मांग के मामले से संबंधित है, के अन्तर्गत 3 साल की कैद और जुर्माना हो सकता है।

1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया जिसके अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए। इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए।

इस तरह के तमाम नियम बनाए गए हैं लेकिन व्यावहारिक रूप से देखा जाय तो आज तक इसका कोई फायदा नहीं हो पाया है।

अगर हम इन तमाम स्थितियों पर नज़र डालें तो यह देखने को मिलता है कि हमारा समाज ही इस पूरी प्रक्रिया में लिप्त नज़र आता है। दहेज जैसी कुप्रथा के ख़िलाफ न तो कोई आंदोलन जैसा भारी विरोध देखने को मिलता है, न तो ग़ैर-सरकारी संस्था के द्वारा कोई बड़ी मुहिम नज़र आती है और न ही किसी राजनीतिक दल के मेनिफेस्टो में इसकी मुख़ालफत करने की बात कही जाती है।

दहेज से समाज को निज़ात दिलाना बहुत ही आवश्यक है, यह एक ऐसी समस्या है जो चमकदार होने के कारण चकाचौंध की स्थिति पैदा कर देती है लेकिन न जाने कितने परिवारों के लिए यह एक अभिशाप जैसी है। दहेज जैसी कुप्रथा को अगर जड़ से ख़त्म करना है तो युवाओं को आगे आना होगा। भारत में शादी की अवसत उम्र 20 से 30 वर्ष है, और यह युवावस्था होती है। अगर शादी करने वाले जोड़े ये ठान लें कि शादी बिना दहेज के करनी है तो कोई भी रोक नहीं सकता। साथ ही भारतीय समाज को चाहिए कि इस प्रथा को कलंक घोषित करे। दहेज देकर खुद को प्रतिष्ठित समझने वालों को यह समझना होगा कि यह करके वो अपनी कन्या को कमज़ोर बना रहे हैं। जिन लाखों-करोड़ों रूपयों से दहेज का सामान खरीदा जाता है, उन्हीं पैसों से अगर शिक्षा और तालीम पर काम कर दिया जाय तो दहेज मांगने वाले नज़र भी नही आएंगे। क़ानून बनाने और लागू करवाने वालों को भी अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए दहेज वाली शादियों में शामिल होना बंद करना होगा।

भारतीय समाज के सभी अभिभावकों को शिक्षा की उपियोगिता को समझते हुए ये कोशिश करनी होगी कि अपनी सभी संतानों को समान रूप से शिक्षित करें और न तो दहेज की मांग करें, न ही दहेज की मांग करने वालों से रिश्ते की डोर बाँधें।

©मोहम्मद साकिब मज़ीद, पत्रकारिता छात्र, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल

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